वो रौशनी है कहाँ जिस के बाद साया नहीं किसी ने आज तलक ये सुराग़ पाया नहीं कहाँ से लाऊँ वो दिल जो तिरा बुरा चाहे उदू-ए-जाँ तिरा दुख भी कोई पराया नहीं तिरी सबाहत-ए-सद-रंग में बिखर जाऊँ अभी वो लम्हा मिरी ज़िंदगी में आया नहीं तिरे वजूद पे अंगड़ाई बन के टूटा है वो नग़्मा जो किसी मुतरिब ने गुनगुनाया नहीं नई-नवेली ज़मीनों की सोंधी ख़ुश्बू में वो चाँदनी है कि जिस में कोई नहाया नहीं हम एक फ़िक्र के पैकर हैं इक ख़याल के फूल तिरा वजूद नहीं है तो मेरा साया नहीं वो बाब जिस में तवानाइयों की ख़ुश्बू है फ़साना-साज़ ने 'फ़ारिग़' कभी सुनाया नहीं