तेरी नाराज़गी फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ है रिफ़ाक़त गुलिस्ताँ ही गुलिस्ताँ है हुई है वार पर जिस की समाअ'त हदीस-ए-इश्क़ ऐसी दास्ताँ है यक़ीनन इंक़लाब आया है कोई हमारा ज़िक्र और उन की ज़बाँ है ग़मों का ज़ंग जो दिल से मिटा दे वो दिलकश आप का तर्ज़-ए-बयाँ है मुझे मौज-ए-हवादिस का नहीं डर सफ़ीना की मिरे हिम्मत जवाँ है वतन के रहनुमा से पूछता हूँ वो रहज़न है कि मीर-ए-कारवाँ है