तिरी निगाह में हो हुस्न-ए-इल्तिमास कहाँ बुझेगी हाए मिरे दिल की अब ये प्यास कहाँ यहाँ तो बंद दरीचे हैं और कुछ भी नहीं मुझे ले आई है तू ऐ निगाह-ए-यास कहाँ ख़ुलूस-ओ-मेहर-ओ-वफ़ा नज़्र-ए-तजरबात हुए तमाम जिस्म बरहना है अब लिबास कहाँ न रंग-ए-'मीर' न 'ग़ालिब' की फ़िक्र का अंदाज़ मिरी ग़ज़ल में किसी का भी इनइ'कास कहाँ मिलेंगे आप को 'मुतरिब' अदब-नवाज़ बहुत मगर मिलेगी निगाह-ए-सुख़न-शनास कहाँ