तेवर भी देख लीजिए पहले घटाओं के फिर बादबान खोलिए रुख़ पर हवाओं के तुम साथ हो तो धूप भी मुझ को क़ुबूल है तुम दूर हो तो पास भी जाऊँ न छाँव के ख़ुद ही चराग़-ए-वा'दा बुझा दे जो हो सके ये हौसले भी देख ले मेरी वफ़ाओं के लोग अपना मुद्दआ'-ए-दिली कह के जा चुके मज़मून सोचते रहे हम इल्तिजाओं के मुझ को हर एक शर्त सफ़र की क़ुबूल है काँटे निकाल दे कोई बस मेरे पाँव के कानों में जैसे कोई शहद घोल दे 'ज़ुहूर' कितनी मिठास होती है लहजे में माओं के