था उस का जैसा अमल वो ही यार मैं भी करूँ रिदा-ए-वक़्त को क्या दाग़-दार में भी करूँ मुआ'फ़ मुझ को न करना किसी भी सूरत से ज़माने तुझ को अगर अश्क-बार मैं भी करूँ मिले जो मुझ को भी फ़ुर्सत ग़म-ए-ज़माना से किसी के सामने ज़िक्र-ए-बहार मैं भी करूँ जो डाले रहते हैं चेहरों पे मस्लहत की नक़ाब क्या ऐसे लोगों में तेरा शुमार मैं भी करूँ ख़ुदा करे कि तुझे वो मक़ाम भी हो नसीब जहाँ पहुँच के तिरा ए'तिबार में भी करूँ सलीक़ा मुझ को जो आ जाए शेर कहने का कि ग़ज़ल-ए-'मीर' से नक़्श-ओ-निगार मैं भी करूँ