ठहरा के एक अधूरी मुलाक़ात देर तक दो साए सर-ब-ज़ानू थे कल रात देर तक निकला न साँस भर किसी गुल-दाएरे से पाँव थी महव-ए-बाज़गश्त कोई बात देर तक मैं रस्म-ए-अलविदा'अ में भी कम-सुख़न रहा लहराए बार बार मिरे हाथ देर तक और शर्त-ए-गुफ़्तुगू को तरह दे के एक बार वो भी सुलग उठा था मिरे साथ देर तक तरतीब बोलती है सलीक़ा उसी का है ये हाथ छू न पाएँगे सौग़ात देर तक