उम्र भर एक ही किरदार से डर लगता है आदमी हूँ मुझे तकरार से डर लगता है आँख थक जाती है चेहरों का तआ'क़ुब करते तेज़ चलता हूँ तो रफ़्तार से डर लगता है चौखटे बेचने वाले तिरी कुन रस आवाज़ खींच भी लाए तो बाज़ार से डर लगता है फिर कोई ज़ख़्म कि कुछ दिन हमें पुर-कार रखे इश्क़ को फ़ुर्सत-ए-बे-कार से डर लगता है कौन किस वक़्त बदल जाए ख़ुदा जानता है ख़ल्क़ और ख़ल्क़ के मेआ'र से डर लगता है दिल है मलबे से चुराया हुआ ज़ेवर 'तालिब' बिक भी जाए तो ख़रीदार से डर लगता है