ठहरेगा वही रन में जो हिम्मत का धनी है ये मा'र्का-ए-ख़ुद-गरी-ओ-ख़ुद-शिकनी है हो ख़ैर कि ऐ अज़्मत-ए-यज़्दाँ तिरी ख़ातिर इंसान अज़ल से हदफ़-ए-अहरमनी है तेवर ही मिरे भाँप लिए लोगों ने वर्ना दुनिया में बनाए से कहाँ बात बनी है पहुँचेंगे तिरी बज़्म-ए-दिल-आरा में भी इक रोज़ तारीक ख़लाओं में अभी ख़ेमा-ज़नी है डरता हूँ कि चुपके से उतर जाए न दिल में ये लम्हा-ए-बेताब कि नेज़े की अनी है ऐ अहल-ए-जुनूँ दूर नहीं मंज़िल-ए-शीरीं हाँ बीच में इक मरहला-ए-कोह-कनी है मिनजुमला-ए-तक़्सीर न हो ये भी कि 'हुर्मत' मुद्दत हुई बे-वज्ह ज़माने से ठनी है