थके हुओं को जो मंज़िल कठिन ज़ियादा हुई सफ़र का अज़्म-ए-मुसम्मम लगन ज़ियादा हुई उदास पेड़ों ने पत्तों की भेंट दे दी है ख़िज़ाँ में रौनक़-ए-सहन-ए-चमन ज़ियादा हुई ज़बाँ पे हब्स की ख़्वाहिश मचल मचल उठी हवा चली तो घरों में घुटन ज़ियादा हुई सफ़र का मरहला-ए-सख़्त ही ग़नीमत था ठहर गए तो बदन की थकन ज़ियादा हुई कभी तो सर्द लगा दोपहर का सूरज भी कभी बदन के लिए इक करन ज़ियादा हुई उरूस-ए-ज़ीस्त पे यूँ भी निखार क्या कम था लहू लिबास किया तो फबन ज़ियादा हुई तलब के होंटों पे आसूदगी का लफ़्ज़ कहाँ? तलब वसीला-ए-दार-ओ-रसन ज़ियादा हुई 'नसीम' किस को था तहज़ीब-ए-फ़न का ध्यान यहाँ हमारे अहद में तश्हीर-ए-फ़न ज़ियादा हुई