थे जो ख़ुशबू वो हवा क्या होते बर्ग-ए-गुल बाद-ए-सबा क्या होते जान देते रहे शोहरत के लिए लोग नामों से रिहा क्या होते हम तो ख़ुद से भी मुशाबह न हुए हम ज़माने पे रवा क्या होते रब्त बढ़ता गया मफ़्हूम के साथ हर्फ़ से हर्फ़ जुदा क्या होते जिन की मिट्टी में न थी ख़ाक अपनी वो बदन दस्तदुआ क्या होते साँस लेते जो ज़माने की तरह हम अजल से भी क़ज़ा क्या होते बादबाँ भी न कभी जिन पे खुले वो समुंदर की हवा क्या होते जिन को तख़्लीक़ किया मैं ने 'समद' वो सनम मेरे ख़ुदा क्या होते