थे उजाले जिस जगह ठोकर वहीं खाई गई रौशनी आँखों में क्या आई कि बीनाई गई मुस्कुरा कर देख लेने के फ़साने बन गए इक ज़रा सी बात थी और कितनी फैलाई गई सर्द जिस्मों में हरारत ही न आई आज तक बारहा चारों तरफ़ से आग बरसाई गई अब तो उन के सामने भी आ चुकी है मस्लहत सच कहूँ तो हाथ से सच्चों के सच्चाई गई कारोबार-ए-ज़िंदगी चलता है सूरत देख कर हर मदद पहुँचे हुए लोगों में पहुँचाई गई अब मोहब्बत का समुंदर घटते घटते रह गया डुबकियाँ खाएँ कहाँ पानी से गहराई गई जांकनी के कर्ब का एहसास क्या होगा उसे मौत जिस की ज़िंदगी में बारहा आई गई पहुँचे कुफ़रिस्तान तो ईमान ताज़ा हो गया 'ख़िज़्र' बुत-ख़ाने में भी शान-ए-ख़ुदा पाई गई