थी अजब ही दास्ताँ जब तमाम हो गई इक मिसाल बन गई इक पयाम हो गई रात जब जवाँ हुई जब दियों के सर उठे तब हवा भी और कुछ तेज़-गाम हो गई एक बस नज़र पड़ी उस के बाद यूँ हुआ मैं ने जो ग़ज़ल लिखी तेरे नाम हो गई मिट रही थी तिश्नगी बढ़ रही थी दोस्ती फिर अना की तेग़ क्यूँ बे-नियाम हो गई फ़लसफ़े को छोड़िए क्या कहेंगे सोचिए ज़िंदगी जो आप से हम-कलाम हो गई तंज़ तो बहुत हुए पर अजीब बात है राह जो हमारी थी राह-ए-आम हो गई कैसी उम्दा क़ौम थी क्या ही ज़िंदा क़ौम थी आख़िर उस को क्या हुआ क्यूँ ग़ुलाम हो गई जाम-ए-इश्क़ पी चुके ज़िंदगी भी जी चुके अब 'हिलाल' घर चलो अब तो शाम हो गई