वही हुआ कि ख़ुद भी जिस का ख़ौफ़ था मुझे चराग़ को जला के बस धुआँ मिला मुझे कभी मिटा सका न कोई दूसरा मुझे शिकस्त दे गई मगर मिरी अना मुझे जवाब इस सवाल का भी दे ज़रा मुझे उड़ा के लाई है यहाँ पे क्यूँ हवा मुझे हरी-भरी सी शाख़ पर खिला हुआ गुलाब न जाने एक ख़ार क्यूँ चुभा गया मुझे उस अजनबी से वास्ता ज़रूर था कोई वो जब कभी मिला तो बस मिरा लगा मुझे अभी न मुझ को टोकिए अभी तो ज़िंदगी सुना रही है गीत रोज़ इक नया मुझे ये मुद्दतों के बाद जो कही ग़ज़ल 'हिलाल' वो कौन है जो आज याद आ गया मुझे