थी आरज़ू उरूज पर और रू-ब-रू थी रात कोई मिरे क़रीब था थी आरज़ू की रात अनजाने में असीर हुई थी नज़र मगर तस्कीन दिल को दे गई वो मुख़्तसर सी रात झपकी पलक गुज़र गई चाहे तवील थी दिल को पनाह दे गई आवारगी की रात किस को ख़बर थी तड़पेंगे फ़ुर्क़त में उम्र भर इन लम्हों के गुज़ारने के फ़िक्र में थी रात ये तिश्नगी ये शौक़ मिटेगा न उम्र भर ख़ामोश रह के कर गई कुछ अर्ज़ सारी रात जादू था उस की आँख का कोई जुनून था आख़िर ये जाने क्या हुआ हैरान सी थी रात लम्हों में थी सिमट गई वो लम्बी काली रात लगने लगी नई नई थी रात सी ही रात 'अंजुम' कहूँ तो क्या कहूँ हाल-ए-दिल-ए-हज़ीं किस दर्जा जोश भर गई वो मुस्कुराती रात