थी उमीद-ए-महर उन को मेहरबाँ समझा था मैं वो सितम ढाएँगे मुझ पर ये कहाँ समझा था मैं अर्श से बढ़ चढ़ के उन का आस्ताँ समझा था मैं उन के कूचे की ज़मीं को आसमाँ समझा था मैं क्यों न हो दुश्वार जाना मंज़िल-ए-मक़्सूद तक था बगूला जिस को गर्द-ए-कारवाँ समझा था मैं इज़्तिराब-ए-दिल ने इफ़्शा दर्द-ए-उल्फ़त कर दिया हाए नादानी कि उस को राज़दाँ समझा था मैं हो गई तुम पर तसद्दुक़ हो गई तुम पर निसार वर्ना अपनी ज़िंदगी को राएगाँ समझा था मैं वो न इस घर में मिले मुझ को न उस घर में मिले काबा भी बुत-ख़ाना भी उन का मकाँ समझा था मैं आज वो एक एक की सौ सौ सुनाने बैठे हैं जिन को कल तक बे-दहान-ओ-बे-ज़बाँ समझा था मैं कह रहे थे जब वो मेरे दर्द-ए-दिल का माजरा गोया उन के मुँह में अपनी ही ज़बाँ समझा था मैं बहर-ए-आलम में थी मेरी ज़िंदगी मिस्ल-ए-हबाब हैफ़ क्यों इस को हयात-ए-जाविदाँ समझा था मैं वहशत-ए-दिल बढ़ गई क्या ख़ाक बहले दिल यहाँ गुलशन-ए-आफ़ाक़ को बाग़-ए-जिनाँ समझता था मैं ख़ाल-ए-रू-ए-दोस्त की मिदहत न तुम से हो सके शाइ'रों में तुम को 'साबिर' नुक्ता-दाँ समझा था मैं