थीं सभी मेहराबें रौशन बाम-ओ-दर आबाद थे इक ज़माना था कि जब ये सारे घर आबाद थे ख़ाक सी उड़ती नज़र आती है अब हर इक तरफ़ वो भी दिन थे जब मोहब्बत के नगर आबाद थे क्या दिलों की सूरत-ए-हालात तुम से हम कहें ये मकाँ बर्बाद हैं अब जिस क़दर आबाद थे रेत उड़ती है अब आँखों में मगर इक वक़्त था वस्ल की दुनिया के जितने थे सफ़र आबाद थे वो भी मौसम था मोहब्बत का बहुत जाँ-आफ़रीं जब हमारे दिल यहाँ शाम-ओ-सहर आबाद थे वर्ना क्यों मज़हर में आता वाक़िआ' मेराज का आसमानों से उधर शायद बशर आबाद थे एक ये दिन हैं फ़लक-आसार है 'तूर' अब ज़मीं एक वो दिन थे कि ये शम्स-ओ-क़मर आबाद थे