थिरकती लौ की बस इक आख़िरी दुआ सुनता फिर उस के बा'द न कुछ मौजा-ए-हवा सुनता मुझे भी लगती कुछ आसान मंज़िल-ए-दुश्वार जो दूसरों की सदा-ए-नक़ूश-ए-पा सुनता कुछ इस क़दर भी ज़माने में क़हत-ए-हर्फ़ न था वो आश्ना था तो आवाज़-ए-आशना सुनता ब-जुज़ ज़ख़ीरा-ए-औहाम पास कुछ भी नहीं ये बात काश वो गिर्वीदा-ए-अना सुनता उसे पुकार चुका ज़िंदगी में हार चुका मिरा ख़ुदा था तो फिर मेरी इल्तिजा सुनता हम एक उम्र से 'मोहसिन' ख़ुमार-ए-ख़्वाब में हैं हमारी बात ज़माने में कोई क्या सुनता