तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ कि ख़ाक बैठ गई अब सफ़र तमाम हुआ बस इक सुकूत बिखरता हुआ है चारों तरफ़ हर एक मार्का-ए-ख़ैर-ओ-शर तमाम हुआ कहीं सकूँ न मिला इश्क़ से फ़रार के बाद किसी तरह न मिरा दर्द-ए-सर तमाम हुआ घरों में ढलती हुई रात थक के बैठ गई कि अब फ़साना-ए-दीवार-ओ-दर तमाम हुआ सब अपनी अपनी ख़बर ले रहे हैं वक़्त-ए-ज़वाल दिलों से बे-ख़बरी का असर तमाम हुआ फिर उस के रू-ब-रू हम दिल की बात कह न सके हमारा हौसला बार-ए-दिगर तमाम हुआ हर एक दास्ताँ तुझ से शुरूअ होती है हर एक क़िस्सा तिरे नाम पर तमाम हुआ न कोई बात मुकम्मल हुई मिरी 'अख़्तर' न कोई काम मिरा सर-ब-सर तमाम हुआ