तिलिस्म-ख़ाना-ए-दिल में है चार-सू रौशन मिरी निगाह के ज़ुल्मत-कदे में तू रौशन बहुत दिनों पे हुई है रग-ए-गुलू रौशन सिनाँ की नोक पे हो जाए फिर लहू रौशन तमाम रात मैं ज़ुल्मात-ए-इंतिज़ार में था तमाम रात था महताब-ए-आरज़ू रौशन मैं अपने आप से ही जंग करता रहता हूँ कि मुझ पे होता नहीं अब मिरा उदू रौशन अजीब शोर मुनव्वर दिल ओ दिमाग़ में है मिरे लहू में है लेकिन सदा-ए-हू रौशन सफ़र सफ़र मिरे क़दमों से जगमगाया हुआ तरफ़ तरफ़ है मिरी ख़ाक-ए-जुस्तुजू रौशन बहार आई तो आँखों में ख़ाक उड़ने लगी न कोई फूल खिला और न रंग ओ बू रौशन मैं तीरगी के समुंदर में डूब जाता हूँ वो जब भी होता है अब मेरे रू-ब-रू रौशन ये और बात कि 'अख़्तर' हवेलियाँ न रहीं खंडर में कम तो नहीं अपनी आबरू रौशन