तिलिस्म-ए-कोह-ए-निदा जब भी टूट जाएगा तो कारवान-ए-सदा भी पलट के आएगा खिंची रहेंगी सरों पर अगर ये तलवारें मता-ए-ज़ीस्त का एहसास बढ़ता जाएगा हवाएँ ले के उडेंगी तो बर्ग-ए-आवारा निशान कितने नए रास्तों का पाएगा मैं अपने क़त्ल पे चीख़ा तो दूर दूर तलक सुकूत-ए-दश्त में इक इर्तिआ'श आएगा किवाड़ अपने इसी डर से खोलते नहीं हम सिवा हवा के उन्हें कौन खटखटाएगा हवाएँ गर्द से हर रास्ते को ढक देंगी हमारे बा'द कोई क़ाफ़िला न जाएगा यूँही डुबोता रहा कश्तियाँ अगर सैलाब तो सत्ह-ए-आब पे चलना भी आ ही जाएगा