ज़मीं का बोझ और उस पर ये आसमान का बोझ उतार फेंक दूँ काँधों से दो-जहान का बोझ पड़ा हुआ हूँ मैं सज्दे में कह नहीं पाता वो बात जिस से कि हल्का हो कुछ ज़बान का बोझ फिर इस के बाद उठाऊँगा अपने आप को मैं उठा रहा हूँ अभी अपने ख़ानदान का बोझ दबी थी आँख कभी जिस मकान-ए-हैरत से अब उस मकाँ से ज़ियादा है ला-मकान का बोझ अगर दिमाग़ सितारा है टूट जाएगा चमक चमक के उठाता है आसमान का बोझ तो झुर्रियों ने लिखा और क्या उठाओगे उठाया जाता नहीं तुम से जिस्म ओ जान का बोझ पलट के आई जो ग़फ़लत के उस कुर्रे से निगह तो सिलवटों में पड़ा था मिरी थकान का बोझ जो उम्र बीत गई उस को भूल जाऊँ 'रज़ा' पुर-ख़याल से झटकूँ गई उड़ान का बोझ