तिलिस्म-ज़ार-ए-शब-ए-माह में गुज़र जाए अब इतनी रात गए कौन अपने घर जाए अजब नशा है तिरे क़ुर्ब में कि जी चाहे ये ज़िंदगी तिरी आग़ोश में गुज़र जाए मैं तेरे जिस्म में कुछ इस तरह समा जाऊँ कि तेरा लम्स मिरी रूह में उतर जाए मिसाल-ए-बर्ग-ए-ख़िज़ाँ है हवा की ज़द पे ये दिल न जाने शाख़ से बिछड़े तो फिर किधर जाए मैं यूँ उदास हूँ इमशब कि जैसे रंग-ए-गुलाब ख़िज़ाँ की चाप से बे-साख़्ता उतर जाए हवा-ए-शाम-ए-जुदाई है और ग़म लाहक़ न जाने जिस्म की दीवार कब बिखर जाए अगर न शब का सफ़र हो तिरे हुसूल की शर्त फ़रोग़-ए-महर तिरा ए'तिबार मर जाए