तिरे दयार में कोई ग़म-आश्ना तो नहीं मगर वहाँ के सिवा और रास्ता तो नहीं सिमट के आ गई दुनिया क़रीब-ए-मय-ख़ाना कोई बताओ यही ख़ाना-ए-ख़ुदा तो नहीं लबों पर आज तबस्सुम की मौज मचली है कोई मुझे किसी गोशे से देखता तो नहीं बना लें राह इसी ख़ार-ज़ार से हो कर जुनून-ए-शौक़ का ये फ़ैसला बुरा तो नहीं सबब हो कुछ भी तिरे इंफ़िआल का लेकिन मिरी शिकस्त से पहले कभी हुआ तो नहीं न रेग-ए-गर्म न काँटे न राहज़न न ग़नीम ये रास्ता कहीं ग़ैरों का रास्ता तो नहीं दयार-ए-सज्दा में तक़लीद का रिवाज भी है जहाँ झुकी है जबीं उन का नक़्श-ए-पा तो नहीं ख़याल-ए-साहिल ओ फ़िक्र-ए-तबाह-कारी-ए-मौज ये सब है फिर भी तमन्ना-ए-नाख़ुदा तो नहीं