ता-देर हम ब-दीदा-ए-तर देखते रहे यादें थीं जिस में दफ़्न वो घर देखते रहे क्या क्या न ए'तिबार दिया इक सराब ने हर-चंद तिश्ना-लब थे मगर देखते रहे सूरज चढ़ा तो फिर भी वही लोग ज़द में थे शब भर जो इंतिज़ार-ए-सहर देखते रहे सेहन-ए-चमन को अपने लहू से सँवार कर दस्त-ए-हवस में हम गुल-ए-तर देखते रहे ये दिल ही जानता है कि किस हौसले के साथ नाक़दरी-ए-मता-ए-हुनर देखते रहे 'मोहसिन' उरूज-ए-कम-नज़राँ सानेहा नहीं ये सानेहा है अहल-ए-नज़र देखते रहे