तिरे ग़म से दिल शादमाँ देखता हूँ तुझे राहत-ए-जावेदाँ देखता हूँ ज़माने की बरगश्तगी का ये आलम कि हर शय को दामन-कशाँ देखता हूँ कभी बिजलियाँ रौनक़-ए-गुलिस्ताँ थीं शजर आज बे-आशियाँ देखता हूँ कभी अपनी मायूसियों पर क़नाअत कभी जानिब-ए-आसमाँ देखता हूँ कभी ख़ाक की रिफ़अ'तों पर नज़र है कभी चर्ख़ की पस्तियाँ देखता हूँ इक अंदाज़-ए-वारफ़्तगी है न पूछो किसे देखता हूँ कहाँ देखता हूँ मोहब्बत का अदना तसर्रुफ़ है 'हिरमाँ' जहाँ मैं नहीं हूँ वहाँ देखता हूँ