तिरे क़रीब रहूँ या कि मैं सफ़र में रहूँ ये आरज़ू है तिरे हल्क़ा-ए-असर में रहूँ शफ़क़ शफ़क़ मुझे देखे निगाह-ए-हुस्न-ए-शुऊ'र नक़ीब-ए-मेहर बनूँ नग़मा-ए-सहर में रहूँ यक़ीं की छाँव में तुझ को जो नींद आ जाए मैं तेरे ख़्वाब की सूरत तिरी नज़र में रहूँ जमाल-ए-शाहिद-ए-मा'नी पे जब निखार आए ख़याल-ए-हुस्न बनूँ और शेर-ए-तर में रहूँ ये चाहता हूँ कि मयख़ाने तक रसाई हो अगर सिफ़ाल बनूँ दस्त-ए-कूज़ा-गर में रहूँ कभी फिरूँ मैं बयाबान-ए-दिल में सरगर्दां कभी निगार-ए-कम-आमेज़ की नज़र में रहूँ बनाएँ अहल-ए-नज़र सुरमा-ए-नज़र मुझ को ग़ुबार बन के अगर तेरी रहगुज़र में रहूँ तिरा जमाल-ए-दिल-आरा रहे तसव्वुर में गुलों की बज़्म कि मैं चाँद के नगर में रहूँ दुअा-ए-नीम-शबी वो करे मिरी ख़ातिर कुछ ऐसा बन के दिल-ए-हुस्न-ए-इश्वा-गर में रहूँ मिरे नसीब में हो तेरे नाम की सुर्ख़ी कि जिस का तुझ से तअ'ल्लुक़ हो उस ख़बर में रहूँ किसी की बज़्म में जाने से फ़ाएदा क्या है मिरे लिए यही बेहतर है अपने घर में रहूँ बनूँ मैं तेरे लिए वजह-ए-लुत्फ़-ए-लाफ़ानी ज़िया-ए-इशक़ की सूरत दिल-ओ-जिगर में रहूँ तिरी ही सम्त हमेशा हो मेरा क़िब्ला-ए-दिल हमेशा महव तिरे हुस्न-ए-मो'तबर में रहूँ 'ज़फ़र' ये मेरे लिए तो अज़ाब-ए-जाँ होगा ख़ुदा न-करदा कि मैं शहर-ए-बे-हुनर में रहूँ