तिरे ख़याल के जब शामियाने लगते हैं सुख़न के पाँव मिरे लड़खड़ाने लगते हैं जो एक दस्त-ए-बुरीदा सवाद-ए-शौक़ में है अलम उठाए हुए उस के शाने लगते हैं मैं दश्त-ए-हू की तरफ़ जब उड़ान भरता हूँ तिरी सदा के शजर फिर बुलाने लगते हैं ख़बर भी है तुझे इस दफ़्तर-ए-मोहब्बत को जलाने जलने में क्या क्या ज़माने लगते हैं ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की नए लिबास भी अब तो पुराने लगते हैं तुम्हारे मेवा-ए-लब को निगह से छूते ही अजीब लज़्ज़त-ए-नायाब पाने लगते हैं जो सनसनाता है कूफ़ा ओ नैनवा का ख़याल गुलू-ए-जाँ की तरफ़ तीर आने लगते हैं