तिरी बर्बादियों का ज़िक्र बज़्म-ए-दिल-बराँ तक है कहाँ की बात है ऐ दिल मगर पहुँची कहाँ तक है तू क्या जाने मोहब्बत के मज़े ऐ नासेह-ए-नादाँ पहुँच तिरी निगाहों की फ़क़त सूद-ओ-ज़ियाँ तक है हम इंसाँ हैं मगर तख़्लीक़-ए-आ'ला हैं कि ऐ हमदम हमारे औज का चर्चा ज़मीं से आसमाँ तक है मोहब्बत आज़माती है मोहब्बत करने वालों को ये सख़्ती ऐ दिल-ए-बेताब तुझ पर इम्तिहाँ तक है जहाँ में वैसे तो जीते हैं सब लेकिन जो सच पूछो मज़ा जीने का दुनिया में बहार-ए-दोस्ताँ तक है कोई जब दोस्त कहता है तो सुन लेता हूँ ऐ 'आसी' कि अब तो दोस्ती इस अहद में हुस्न-ए-बयाँ तक है