तिरी चाहत की आदी हो गई हूँ हथेली तू मैं मेहंदी हो गई हूँ किसी के वास्ते ताज़ा ग़ज़ल हूँ तिरी ख़ातिर कहानी हो गई हूँ दुआओं में मुझे वो माँगता है इधर मैं भी नमाज़ी हो गई हूँ मुझे क़िस्मत पे अपनी है भरोसा मिला जो उस पे राज़ी हो गई हूँ सुना जो ज़ौक़ पढ़ने का है उस को मैं सर-ता-पा किताबी हो गई हूँ मिरे दरिया हुई जब ज़म मैं तुझ में समुंदर से भी गहरी हो गई हूँ सितारों से किया जब इस्तिफ़ादा उसी दिन से शहाबी हो गई हूँ तिरी नज़रों ने देखा मुझ को जिस दम हया से मैं गुलाबी हो गई हूँ बिछड़ कर तुझ से ऐ 'ज़रयाब' अब तो मैं हर जज़्बे से आरी हो गई हूँ