तिरी चाहत मिरे पैरों की जो ज़ंजीर बन जाए तो फिर ऐसे में जाने जाँ मिरी तक़दीर बन जाए ख़ुदा ने इस क़दर बख़्शी है तुझ को हुस्न की दौलत तिरी तस्वीर जो देखे वो ख़ुद तस्वीर बन जाए तुम्हारे पाँव उफ़ ये पाँव कितने ख़ूबसूरत हैं इन्हें तुम जिस जगह रख दो वहीं कश्मीर बन जाए जो नग़्मा लिक्खा जाए तेरी ज़ुल्फ़ों की सियाही से किताब-ए-इश्क़ की सब से हसीं तहरीर बन जाए इसी उम्मीद पर बस कट रही है ज़िंदगी अपनी कि अब तो वस्ल की शायद कोई तदबीर बन जाए फ़क़त काँटों से फूलों की हिफ़ाज़त अब नहीं मुमकिन तक़ाज़ा वक़्त का है शाख़-ए-गुल शमशीर बन जाए मिरे हर ख़्वाब को ऐ 'आरज़ू' तकमील हासिल हो मुक़द्दर से जो तू उन की अगर ता'बीर बन जाए