जब सुलगती है शब-ए-ग़म मिरी तन्हाई से रिसने लगता है लहू चश्म-ए-तमन्नाई से उस के इस तर्ज़-ए-मोहब्बत पे हँसी आती है प्यार भी करता है डरता भी है रुस्वाई से ज़लज़ला सा कोई आता है ज़मीन-ए-दिल पर ऐ मेरी जान के दुश्मन तिरी अंगड़ाई से ज़ेहन-ओ-दिल में कहीं लैला तो नहीं है लेकिन क़ैस वाक़िफ़ है मिरी फ़ितरत-ए-सहराई से दिल भी मायूस-ए-मोहब्बत की तरह टूट गया अब गुज़रना है उसे राह-ए-शिकस्ताई से कट गई हिज्र की ज़ंजीर फ़क़त इक पल में मेरे महबूब तिरी चश्म-ए-करिश्माई से ऐसा लगता है कि टकरा के चली आती है मेरी हर एक सदा अर्श की ऊँचाई से