तिरी चश्म-ए-तर में रवाँ-दवाँ ग़म-ए-इश्क़ का जो मलाल है ये ही इंतिहा-ए-फ़िराक़ है ये ही इंतिहा-ए-विसाल है है क़रीब फिर भी है अजनबी तू इधर नहीं मैं उधर नहीं किसी राह के हैं दो सम्त हम मैं जुनूब हूँ तू शुमाल है मिरी हालतों में निहाँ हैं अब तिरी जुस्तुजू की ख़राबियाँ न मैं ग़म-ज़दा न मैं शादमाँ मिरा हाल भी कोई हाल है तू सितम करे तो इनायतें मैं गिला करूँ तो शिकायतें तिरा हर सुख़न वही अर्श की मेरा बोलना भी मुहाल है वो बुरा कहे मुझे रात-दिन ये रज़ा है उस के मिज़ाज की उसे 'आٖफ़ी' मैं भी बुरा कहूँ कहाँ मुझ में इतनी मजाल है