तिरी ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ हो बला चट वो बोसा दे कि हो जिस की सदा चट मुँडा कर ख़त्त-ए-रुख़ उस मह-लक़ा ने किया है आइने का घर सफ़ा-चट मुझी को गालियाँ देते रहे वो मगर लेता रहा बोसे चटा-चट तुम्हारी ज़ुल्फ़ का बाँधा न छूटा डसा काले ने जिस को वो मुआ चट मुसल्लम मुर्ग़-ए-दिल है मेहमान-ए-ग़म करे जल्द ऐ ख़ुदा वो ये ग़िज़ा चट 'वक़ार' उस गुल को ग़ुंचा ने जो देखा तो औसाफ़-ए-दहन में बोल उठा चट