तिरी ज़ुल्फ़ों ने बल खाया तो होता ज़रा सुम्बुल को लहराया तो होता रुख़-ए-बे-दाग़ दिखलाया तो होता गुल-ए-लाला को शरमाया तो होता चलेगा कब्क क्या रफ़्तार तेरी ये अंदाज़-ए-क़दम पाया तो होता कहे जाते वो सुनते या न सुनते ज़बाँ तक हाल-ए-दिल आया तो होता समझता या न ऐ 'आतिश' समझता दिल-ए-मुज़्तर को समझाया तो होता