तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा यहाँ तो एक लैला के न जाने कितने मजनूँ हैं यहाँ अपना गरेबाँ अपना दामाँ कौन देखेगा बहुत निकले हैं लेकिन फिर भी कुछ अरमान हैं दिल में ब-जुज़ तेरे मिरा ये सोज़-ए-पिन्हाँ कौन देखेगा अगर पर्दे की जुम्बिश से लरज़ता है तो फिर ऐ दिल तजल्ली-ए-जमाल-ए-रू-ए-जानाँ कौन देखेगा अगर हम से ख़फ़ा होना है तो हो जाइए हज़रत हमारे बा'द फिर अंदाज़-ए-यज़्दाँ कौन देखेगा मुझे पी कर बहकने में बहुत ही लुत्फ़ आता है न तुम देखोगे तो फिर मुझ को फ़रहाँ कौन देखेगा जिसे कहता है इक आलम 'अज़ीज़'-ए-वारिस-ए-आलम उसे आलम में हैरान-ओ-परेशाँ कौन देखेगा