तिरी नज़र भी नहीं हर्फ़-ए-मुद्दआ भी नहीं ख़ुदा-गवाह मिरे पास कुछ रहा भी नहीं हज़ार मंज़िल-ए-ग़म से गुज़र चुके लेकिन अभी जुनून-ए-मोहब्बत की इब्तिदा भी नहीं ग़म-ए-फ़िराक़ ये शब किस तरह से गुज़रेगी कि अब तो आस की मौहूम सी ज़िया भी नहीं न जाने किस लिए अब भी है दिल से बढ़ के अज़ीज़ सियाह-दिल भी नहीं और पारसा भी नहीं जो सच कहूँ तो मोहब्बत-शिआर 'अजमल' में हज़ार ऐब सही आदमी बुरा भी नहीं