तिरी सदा का है सदियों से इंतिज़ार मुझे मिरे लहू के समुंदर ज़रा पुकार मुझे मैं अपने घर को बुलंदी पे चढ़ के क्या देखूँ उरूज-ए-फ़न मिरी दहलीज़ पर उतार मुझे उबलते देखी है सूरज से मैं ने तारीकी न रास आएगी ये सुब्ह-ए-ज़र-निगार मुझे कहेगा दिल तो मैं पत्थर के पाँव चूमूँगा ज़माना लाख करे आ के संगसार मुझे वो फ़ाक़ा-मस्त हूँ जिस राह से गुज़रता हूँ सलाम करता है आशोब-ए-रोज़गार मुझे