शराब ओ शेर के साँचे में ढल के आई है ये शाम किस की गली से निकल के आई है समझ रहा हूँ सहर के फ़रेब-ए-रंगीं को नया लिबास शब-ए-ग़म बदल के आई है तिरे क़दम की बहक है तिरी क़बा की महक नसीम तेरे शबिस्ताँ से चल के आई है वफ़ा पे आँच न आती अगर तुम्ही कहते ज़बाँ तक आज जो इक बात चल के आई है सजी हुई है सितारों से मय-कदे की फ़ज़ा कि रात तेरे तसव्वुर में ढल के आई है ब-एहतियात हमारी तरफ़ उठी है निगाह लबों पे मौज-ए-तबस्सुम सँभल के आई है हमारी आह हमारे ही दिल की आह नहीं न जाने कितने दिलों से निकल के आई है सहर तक आ तो गई शम्अ ता-ब परवाना मगर हरारत-ए-ग़म से पिघल के आई है मिरी निगाह-ए-तमन्ना का अक्स हो न 'शमीम' किसी के रुख़ पे जो सुर्ख़ी मचल के आई है