तिरी वफ़ा का हुआ था कभी गुमाँ मुझ को वही ख़याल हुआ ऐश-ए-जावेदाँ मुझ को शिकायत-ए-सितम-ए-दुश्मनाँ मैं क्या करता कि भूलता ही नहीं लुत्फ़-ए-दोस्ताँ मुझ को तिरे जमाल का ज़िक्र-ए-जमील मैं करता न मिल सका कोई आलम में राज़-दाँ मुझ को न संग-ए-मील न नक़्श-ए-क़दम न रहबर है तिरी तलाश ने गुम कर दिया कहाँ मुझ को तू ख़ुद मिले न मिले जुस्तुजू की दाद तो दे निशाँ मिरा भी मिटा दे न दे निशाँ मुझ को ज़बान-ए-शम्अ' से ज़ाहिर हो सोज़-ए-परवाना कुछ इस तरह से जला सोज़िश-ए-निहाँ मुझ को तलाश-ए-यार में खोया रहा जो मैं 'बेख़ुद' हुआ न बार-ए-ग़म-ए-दो-जहाँ गिराँ मुझ को