तिश्नगी-ए-लब पे हम अक्स-ए-आब लिक्खेंगे जिन का घर नहीं कोई घर के ख़्वाब लिखेंगे तुम को क्या ख़बर इस की ज़िंदगी पे क्या बीती ज़िंदगी के ज़ख़्मों पर हम किताब लिक्खेंगे जिस हवा ने काटी हैं ख़ामुशी की ज़ंजीरें उस हवा के लहजे को इंक़लाब लिक्खेंगे झूट की परस्तिश में उम्र जिन की गुज़री है तीरगी-ए-शब को वो आफ़्ताब लिक्खेंगे शेर की सदाक़त पर हम यक़ीन रखते हैं मस्लहत के चेहरों को बा-नक़ाब लिक्खेंगे सूलियों पे झूलेगा बद-निहाद हर मुंसिफ़ मुंसिफ़ी का जब भी हम ख़ुद निसाब लिक्खेंगे ग़म नहीं जो ख़्वाबों की लुट गई हैं ताबीरें हम नज़र के ताक़ों में और ख़्वाब लिक्खेंगे हिर्ज़-ए-जाँ समझते हैं हम वतन की मिट्टी को अपने घर के ख़ारों को हम गुलाब लिक्खेंगे इस ग़ज़ल के परतव में बे-घरों की बातें हैं बे-घरों के नाम इस का इंतिसाब लिक्खेंगे हर दलील काटेंगे हम दलील-ए-रौशन से 'बख़्श' सौ सवालों का इक जवाब लिक्खेंगे