तो मिल भी जाए तो फिर भी तुझे तलाश करूँ हर एक दौर में तख़्लीक़-ए-इर्तिआश करूँ मैं फ़ाश हो ही चुका हूँ तो क्या ज़रूरी है? कि अपने साथ तुझे भी जहाँ में फ़ाश करूँ सुराग़-ए-ज़ीस्त मिले रेज़ा रेज़ा इंसाँ को बुतान-ए-अस्र को कुछ ऐसे पाश पाश करूँ ज़मीं ने क़र्ज़ दिया मुझ को रिज़्क़ की सूरत मरूँ तो क्यूँ न सुपुर्द उस के अपनी लाश करूँ मुझे नजात मिले तीरा-कारियों से काश मैं नूर उगाऊँ यहाँ रौशनी मआश करूँ मिरी बक़ा का तक़ाज़ा है जब भी रुत बदले मैं जम्अ अज़-सर-ए-नौ अपनी क़ाश क़ाश करूँ जदीद दौर में रहते हुए भी ऐ 'रूही' है आरज़ू कि न तर्क अपनी बूद-ओ-बाश करूँ