तो मुझे एक झलक भी नहीं दिखलानी क्या सिर्फ़ मूसा पे इनायत थी ये फ़रमानी क्या मैं किसी शख़्स के मरने पे भी ग़मगीन नहीं ख़ाक अगर ख़ाक में मिलती है तो हैरानी क्या ख़त में लिखते हो बहुत दुख है तुम्हें हिजरत का यार जब जा ही चुके हो तो पशेमानी क्या मेरी आँखों में ज़रा ग़ौर से देख और बता इन से बढ़ कर है भला दश्त की वीरानी क्या न ग़म-ए-यार है मुझ को न ग़म-ए-दौराँ है आख़िर अब ज़ीस्त में भी इस क़दर आसानी क्या मेरी मिट्टी में अलग शय है कोई कूज़ा-गर वक़्त-ए-तज्सीम मिरी ख़ाक नहीं छानी क्या