तोड़ा जो मैं ने ज़ब्त कहा हाए अल-फ़िराक़ फिर हर तरफ़ से शोर उठा हाए अल-फ़िराक़ शब ले रहा था आख़िरी साँसें मरीज़-ए-हिज्र बोला तबीब नब्ज़ दबा हाए अल-फ़िराक़ वहशत ही रह गई मिरे कमरे में तेरे बा'द दो पल को भी सुकूँ न मिला हाए अल-फ़िराक़ माज़ी के कुछ नुक़ूश ख़यालों में आ के अब करते हैं इक बुलंद सदा हाए अल-फ़िराक़ चर्चा है आज-कल कि किसी क़ब्र पर कोई कहते हुए दिवाना गिरा हाए अल-फ़िराक़ पढ़ते हुए मैं कर्बला रोया तो आँख से फ़ुर्क़त में आँसू कहने लगा हाए अल-फ़िराक़ हम ऐसे लोग अपनी इबादत में हैं मगन 'अल्वी' हमें है विर्द मिला हाए अल-फ़िराक़