टूट कर आलम-ए-अज्ज़ा में बिखरते ही रहे नक़्श-ए-ता'मीर जहाँ बन के बिगड़ते ही रहे अपने ही वहम-ओ-तज़बज़ुब थे ख़राबी का सबब घर अक़ीदों के बसाए तो उजड़ते ही रहे जाने क्या बात हुई मौसम-ए-गुल में अब के पँख पंछी के फ़ज़ाओं में बिखरते ही रहे चंद यादों की पनाह-गाह में जाने क्यूँ हम साया-ए-शाम की मानिंद सिमटते ही रहे हम ने हर रंग से चेहरे को सजाया लेकिन अपनी पहचान के आसार बिगड़ते ही रहे