तू भी गर मुझ से ख़फ़ा हो जाए ज़िंदगी मेरी बद-दुआ' हो जाए ज़ाएअ' मत कीजो एक लम्हा भी एक लम्हे में जाने क्या हो जाए कब से इस दिन के इंतिज़ार में हूँ एक इक बे-ख़ता रिहा हो जाए ज़िंदगी इख़्तिलाज-ए-क़ल्ब मुझे कोई आए मिरी दवा हो जाए उस को दरपेश मसअले कितने आदमी क्या करे ख़ुदा हो जाए साज़िशें करने लगता है क्या क्या आदमी जब ज़रा ख़फ़ा हो जाए