ज़िंदा रहने की आरज़ू भी मुझे लह्मयाती बदन की ख़ू भी मुझे कभी मेरे लिए हैं सब मेरे और पुकारे कभी लहू भी मुझे आरज़ुओं के सामने अपनी हेच लगती है आबरू भी मुझे बेबसी से लिपट के रो लूँ हूँ रहमत-ए-जाँ है अपनी हू भी मुझे मुझे मफ़्लूज करने लगता है आज मेरा लहू है लू भी मुझे वस्ल उस का मुझे इबादत है उस का ख़ाकी बदन वुज़ू भी मुझे वो नहीं है ये जानता हूँ मैं 'सोज़' उस की है जुस्तुजू भी मुझे