तू हर्फ़-ए-आख़िरी मिरा क़िस्सा तमाम है तेरे बग़ैर ज़िंदगी करना हराम है करने हैं तेरे जिस्म पे इक बार दस्तख़त ताकि ख़ुदा से कह सकूँ तू मेरे नाम है होता है गुफ़्तुगू में बहुत बार तज़्किरा यानी हवा चराग़ का तकिया-कलाम है पहले-पहल मिली थी हमें शिद्दतों की धूप अब यूँ है राब्ते की सराए में शाम है आख़िर में बस निशाँ हैं 'सहर' कुछ सवालिया फिर इस के बअ'द दास्ताँ का इख़्तिताम है