ये इक तेरा जल्वा सनम चार सू है नज़र जिस तरफ़ कीजिए तू ही तू है ये किस मस्त के आने की आरज़ू है कि दस्त-ए-दुआ आज दस्त-ए-सुबू है न होगा कोई मुझ सा महव-ए-तसव्वुर जिसे देखता हूँ समझता हूँ तू है मुकद्दर न हो यार तो साफ़ कह दूँ न क्यूँकर हो ख़ुद-बीं कि आईना-रू है कभी रुख़ की बातें कभी गेसुओं की सहर से यही शाम तक गुफ़्तुगू है किसी गुल के कूचे से गुज़री है शायद सबा आज जो तुझ में फूलों की बू है नहीं चाक-दामन कोई मुझ सा 'गोया' न बख़िया की ख़्वाहिश न फ़िक्र-ए-रफ़ू है