तू जवाँ अब कोई काम का न रहा इस में कुछ जज़्बा-ए-इर्तिक़ा न रहा ये फ़साना नहीं ये हक़ीक़त है सुन मेरा हो के सनम तू मिरा न रहा हर तरफ़ शोर है अब गुलिस्तान में शाख़ पर कोई पत्ता हरा न रहा इश्क़ में तेरे जब बेवफ़ाई मिली तुझ से मिलने का अब आसरा न रहा हुस्न-ए-यूसुफ़ पे जिस की निगाहें पड़ीं मिस्र में कोई भी पारसा न रहा तेरी चाहत ने इतने किए हैं सितम ज़ख़्म सहने का भी हौसला न रहा किस तरह पीता 'साजिद' शराब-ए-वफ़ा इस में कुछ आज जब ज़ाइक़ा न रहा