तू मुझ को चाहता है इस मुग़ालते में रहूँ कभी करम भी किया कर कि आसरे में रहूँ जो मेरी सोच को गहराइयों की शिद्दत दे मैं ज़ख़्म ज़ख़्म किसी ऐसे सानेहे में रहूँ जो मेरी रूह की बरफ़ाब रुत को हिद्दत दे तमाम उम्र तिरे क़ुर्ब दाएरे में रहूँ जो तेरे क़ुर्ब के लम्हों से मिलता-जुलता हो मैं वक़्त तोड़ के एक ऐसे सिलसिले में रहूँ वो जो मक़ाम है तेरा मिरी कहानी में उसी मक़ाम पे मैं तेरे तज़्किरे में रहूँ अब इस क़दर तो न हो इंतिज़ार-ए-दीद तिरा कि मुंतज़िर तिरे ख़्वाबों का रतजगे में रहूँ शरीक कोई न हो जिस में तेरा मेरे सिवा मैं तुझ से मुंसलिक इक ऐसे वाक़िए में रहूँ